रविवार, 30 जनवरी 2011

मैं चाहती हूँ

हाथों में सपनों का कटोरा लिए,
उस आसमान की ओर ताकती हूँ |
ख्वाबों के चादर पर चढ़,
देख फिर कैसे मैं नाचती हूँ |
 
बादलों पे बने उस सिंहासन पर,
 बैठना मैं चाहती हूँ|
समुद्र की गहराई से,
उस अंनंत ऊँचाई तक
यू ही विचरना चाहती हूँ|
 
जिम्मेदारियों से परे,
दुनिया के लवों-लक्ष से कोसो  दूर ,
मैं निरुद्देश्य,
यू ही भटकना चाहती हूँ |

मैं ये चाहती हूँ  ,मैं  वो चाहती हूँ ,
न जाने मैं क्या- क्या चाहती हूँ
बस उन सपनों को पूरा होते देखना 
मैं चाहती हूँ |

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

क्षण

क्या खूब कहा  किसी शायर  ने
 क्यों कर  मानव किसी से नफ़रत
रोया तू  हर क्षण प्रति क्षण  में
आया था तू  नंगा, जायेगा दो ग़ज में |

धन-वैभव दोस्त सभी
क्षण भर के ये साथी है|
नहीं है तेरा कुछ भी
जो रो रहा तू इनके जाने में |

जिस दिन ये आँखों की पुतलियाँ बंद होगी,
उस दिन ना दुश्मन की तलवार दिखेगी,
और ना चाहने वालों की कतार ही मिलेगी,
बस सब और अँधेरे होगा |

फिर क्यों कर  मानव किसी से नफ़रत
तू  रो रहा है
हर क्षण-प्रति क्षण में 
आया था तू  नंगा, जायेगा दो ग़ज में |