शनिवार, 8 मई 2010



आए दिन हम एक दूसरे से आगे निकलने कि होर में न जाने कितने पीछे चले जाते है.क्योंकि इस अंधी दौर में हम कितना झूठ बोलते है उसकी कोई गिनती नहीं है? कितने लोगों को हम धोखा देते है उसका कोई बहि-खाता नहीं होता .इस तरह हम झूठ बोल कर ,फरेब कर आगे तो निकल जाते है पर खुश नहीं हो पाते. इन सब से दुखी हो कर हम कही अकेले में बैठ कर सोचते है ..............!
उठा है तूफान
उठा है तूफान मेरे मन में ,कही डूब  जाऊ उन मद-मस्त ,
इच्छाओं की ऊँची-ऊँची लहरों की लपेट में 

मन के सिंहाशन पर बैठा,
वो इच्छा बाबा,
कहे कर जो कहू मैं तुझसे
छीन रोटी ?
कर तू नफ़रत !
आगे निकलने की चाह में 

मान-सम्मान ने रोका हमें 
दुनियाँ में मिलने से
रूपये-पैसे ने बांधा,आलीशान बंगलो की दीवारों से 

इस अंधी दौर में
प्यार भी छुटा,अपने भी रूठे
और ना जाने क्या -क्या टुटा
इस झूठी इच्छा की आग में.

पर कही किसी कोने में
आश जगी है ,
सब बदलने को एक प्यास जगी है ,
सो उठा है, तूफान मन मेरे मन में ,
डूब जाऊ ,उन मद-मस्त कामनाओं की लहरों में .

गुरुवार, 6 मई 2010



प्रभु की रची इस माया जाल में फसा हुआ मानव अपने लिए नित-नये सपने बुन रहा होता है पर वो हमेशा इस दुविधा में रहता कि आखिर वो क्या करे कि उसके सपने सच हो जाये.इसी माया के प्रकोपवस हर साल कई नौजवान छोटे इलाके से निकल, बरे शहरों कि तरफ रुक करते है पर उस जगह से अंजान होने के कारण उन्हें समझ नहीं आता कि वो आखिर शुरुआत कहा से करे.कुछ इसी तरह कि दुविधा में फसे एक युवक के उपर ये कविता लिखी गयी है जो खुद नहीं जनता कि उसे किस तरह अपनी मंजिल तक पहुँचना है? वो तो सिर्फ इतना ही जानता कि चाहे कुछ भी हो जाये उसे अपने सपनो को साकार करना है.................!

जानते नहीं!
आये है इस अंजान जगह जाने कितने सपने लेकर?
कभी पूरे होगे की नहीं,
जानते नहीं!
पर जानते तो सिर्फ इतना है कि
हमें कुछ करना है,कुछ कर दिखाना है
पर कैसे,
जानते नहीं ?

सोमवार, 3 मई 2010



समय नहीं है

समय नहीं है, समय नहीं है,
यारो मेरे पास समय नहीं है
दिन में बैठने को,रात में सोने को ,
समय नहीं है ?
क्या करूँ भईया, मेरे पास समय नहीं है,

सुबह अलार्म की घंटी बजते ही,
आधे सोये आधे- जागे,
दफ़्तर को किसी तरह भागते
दिनभर दफ़्तर कि फाईलो में सर खपाते,
शाम को किसी तरह थके-हारे घर को लौटते

घर लौट,सिर्फ हम इतना ही पाते,
बीवी ने माँ से मुहँ फुलाया,
बच्चो ने लॉलीपॉप ना मिलने से मुहँ लटकाया,

इन सारे को सुलझाते-सुलझाते,
आधी रात हम गवाते,
बाकी बची रात में,
कल क्या मुनाफा कमाना है,
ये सोचते-सोचते शायद हम सो जाते ?

फिर वही अलार्म की घंटी बजती,
और फिर उसी रूटीन को हम पाते,
इन सब के बीच में,
सिर्फ हम इतना ही कहा पाते,
यारो मेरे पास समय नहीं है?

रविवार, 2 मई 2010



मज़बूरी

ये हमारी मज़बूरी ही तो है
कि घर आये मेहमान को
भगवान कहना ही है .
"अतिथि देवो भाव:" का स्वर
मन को मजबूर कर लाना ही है .
है ये और कष्टकर जब
उस आये मेहमान से हमें
कोई कामधेनु न मिले .
उल्टे उस देव कि सेवा में
हमरी धन रानी चलती हुई दिखे .

और अगर ये आग-लगाऊ दुनियावाले
गलती से पूछ दे
भईया!आप तो हो देवता
वरना कौन इन महान
देवो को देवो भाव: की संज्ञा दे
तो वो बंदा भी पुल्ल्कित हो
स्वर अलापेगा --
"हाँ,भाई !मानव एक समाजिक प्राणी है
ये नाते -रिश्तेदार उन्ही के हिस्से है
उन्हें ढ़ोना
" हमारी मज़बूरी ही तो है"