आए दिन हम एक दूसरे से आगे निकलने कि होर में न जाने कितने पीछे चले जाते है.क्योंकि इस अंधी दौर में हम कितना झूठ बोलते है उसकी कोई गिनती नहीं है? कितने लोगों को हम धोखा देते है उसका कोई बहि-खाता नहीं होता .इस तरह हम झूठ बोल कर ,फरेब कर आगे तो निकल जाते है पर खुश नहीं हो पाते. इन सब से दुखी हो कर हम कही अकेले में बैठ कर सोचते है ..............!
उठा है तूफान
उठा है तूफान मेरे मन में ,कही डूब न जाऊ उन मद-मस्त ,
इच्छाओं की ऊँची-ऊँची लहरों की लपेट में
मन के सिंहाशन पर बैठा,
वो इच्छा बाबा,
कहे कर जो कहू मैं तुझसे
छीन रोटी ?
कर तू नफ़रत !
आगे निकलने की चाह में ।
मान-सम्मान ने रोका हमें
दुनियाँ में मिलने से
रूपये-पैसे ने बांधा,आलीशान बंगलो की दीवारों से ।
इस अंधी दौर में
प्यार भी छुटा,अपने भी रूठे
और ना जाने क्या -क्या टुटा
इस झूठी इच्छा की आग में.
पर कही किसी कोने में
आश जगी है ,
सब बदलने को एक प्यास जगी है ,
सो उठा है, तूफान मन मेरे मन में ,
डूब जाऊ ,उन मद-मस्त कामनाओं की लहरों में .