बुधवार, 10 अगस्त 2011


तलाश

एक बार फिर की है अपने मन की |
दुनिया के रचे-रचाएं धुन को छोड़ ,
एक बार फिर गा रही हूँ अपने दिल की |

जो मिल गया, उसे छोड़
एक बार फिर चल पड़ी हूँ ,
उस नई राह की तलाश में.
वो मिलेगा या नहीं,
यह कौन है जनता ?
पर परवाह है किसे इसकी !

सो एक बार फिर चल पड़ी हूँ ,
बिना सोचे-बिना समझे कि
जाना कहाँ है ?
बस चल पड़ी हूँ ,
कदमों से लांघने दुनिया के उस पार |


रविवार, 7 अगस्त 2011

नई सुबह

एक अलसाई नींद से जागी तो
एक सुनहरी सुबह को देखा,
बादलों में आधा छुपा आधा निकला
वो पहला सूरज देखा |
पेड़ की डालियों और ऊची मंजिलों की ओट से निकलते
उन उनमुक्त पंछियों के झुंड को एक साथ उड़ते देखा |
हर रोज चिड़ियों को दाने देता, उस नेकदिल इंसान को देखा
कसरत करते उन कर्मठ लोगों को देखा, 
दफ्तर जाने के लिए तैयार होते,
लोगों के नित-दिनचर्या को देखा |
और इन सब के बीच
देखा अपने आपको,
इस नई होती सुबह में,
 
नई उर्जा- नए आत्मविश्वास के साथ,
एक नई राह पर
बढ़ते देखा |