शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

अयोध्या की विवादित जमीन पर मालिकाना हक को ले कर चल रहे विवाद का अंत क्या होगा, इसकी कल्पना करना कठिन है?पर एक कवि की नजर से आप सोचे कि कही किसी स्वर्ग-लोक में राम और रहीम इस मुद्दे पर मंथन कर रहे हो तो वो आपस में क्या सोचते होगे? मेरी माने तो शायद यही बोलते होगे कि..........



राम  और  रहीम 
राम से कहा रहीम ने ,
देखो आज हमारे बच्चे कैसे लड़ते है?
हमारे एक ही नाम को दो बता,
आपस में ही मर-मिटते है.

पूरी धरती को छोड़,
बस दो ग़ज की जमीन के लिए ,
अपनो  को ही लहुलुहान करते है.

एक ही घर को कभी मंदिर तो कभी मस्जिद का,
रुप दिलवाने को,
ये मुर्ख! अदालत को भी जाते है.

कुरान-रामायण के वास्तविक मूल्यों को भूल,
अपना ही पाखण्डी ग्रंथ लिखते जाते है.
आस्था के नाम पे,
 ये मासूम आवाम को गुमराह किए जाते है.

लोगों से क्या लेना बस आपनी ही मनवाते है. 
भावनाओं की तोड़-जोड़ में,
अपनी मखमली राजनीतिक गद्दी भर बनवाते है.

यह सब देख-सुन, 
भाई राम! क्या हम ऐसी भक्ति से
खुश हो पाते है?

   
.

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

एक प्रेमिका अपनी कोमल भावनायें अपने प्रेमी के सामने कुछ इस से तरह रखती है.

काश!

काश! तुम ऐसे होते,
जेठ की दोपहरिया में,बरगद की छाव हो जैसे.
प्यासे पथिक के मुहँ में,दो बूंद पानी हो जैसे.
अंधेरी गली में जला वो,एक मात्र दीपक हो जैसे.

काश! मैं ऐसी होती
तुम्हारी मजबूत बरगद की डाली से,
लिपटी वो कोमल लतायें हो जैसे .
उस अंधेरी गली में जलने वाले, 
एक मात्र दीपक की बाती हो  जैसे.
तुम्हारे जीवन की एक मात्र नायिका हो जैसे.

काश! तुम-मैं ऐसे होते 
तुम चाँद तो मैं तुम्हारी चाँदनी हो जैसे.


  


सोमवार, 20 सितंबर 2010



मिस्ड कॉल


फोन पर बजी वो आधी घंटी
लो आया वो मिस्ड कॉल
एक अनबुझ पहेली बन 
फिर टंन-टनाया वो मिस्ड कॉल



क्या,क्यों,कैसे ?
अपने साथ कई सवाल,
लेकर आय वो मिस्ड कॉल



खुद के पैसे बचाने को 
दुसरों के पैसे लगाने को 
आया वो दुश्मन मिस्ड कॉल



अब क्या करोगे?
जवाब ढुंढने करोगे कॉल बैक
या फिर तुम भी दोगे 
मिस्ड कॉल



हाँ,भाई सिर दर्द है
 ये बेमतलब के  
"कॉल" 
जिसे हम कहते है "मिस्ड कॉल"

शनिवार, 18 सितंबर 2010

आज का समय स्वःकेन्द्रित होता जा रहा है. आज सभी अपनी ही दुनिया में जीते है,कोई किसी की मदद्त नहीं करना चाहता.ऐसे में अगर कोई सामने मर भी रहा हो तो भी लोग उसकी मदद्त नहीं करना चाहेगें.इसके पीछे बहुत हद तक हमारी कानून व्यवस्था भी जिम्मेदार है.आईये देखते है कैसे?

सच क्या है?

सच क्या है?
ये तो सिर्फ में जानती हूँ
या मेरा ख़ुदा.!!

रोड के किनारे गिरा वो चाकू
और कुछ दूर पे ,
मिला वो खूनी ढाँचा.

गये तो मदद्त को,
 पर ये क्या ?
कानून ने हमें ही धरदबोचा
और कहाँ ............
"इसका कोई प्रमाण नहीं कि
तुम जो बोल रहें हो
वो कानून की किताब में सच हो!
कौन मानेगा कि तुमने खून नहीं किया,
कि तुम वहाँ सिर्फ थे,जहाँ उसका खून हुआ.
कि तुमने गलती से उस चाकू को छुआ
जिससे उसकी मौत हुई"

क्योंकि तुम्हारे ख़िलाफ सारे सबूत है इसलिये
 तुम खूनी हो, खूनी हो,खूनी हो!!!

पर सच क्या है,
ये तो सिर्फ मैं जानती  हूँ
या मेरा ख़ुदा .



 





 

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

आज कल हर कोई यही कहता है कि दुनिया अब बहुत ख़राब हो गयी है.सब जगह इतना ज्यादा भष्ट्राचार है कि कोई इसके प्रकोप बच नहीं सकता.पर क्या ये सच है?

दुनिया बदलेगी.


कैसे बैठे उस चौपाल पर,बतियाँ रहे हो.
नहीं बदलेगी ये दुनिया,सब को बोल रहे हो
आखिर तुमने किया ही क्या है
इस दुनिया के लिए
जो इसके ना बदलने कि बात बता रहे हो

हर बार सभा बुला-बुला
भष्ट्राचार का राग अलाप रहे हो
कभी आतंक तो कभी आतंकबादी का नाम ले
अपनी कमजोरी छुपा रहे हो !

सरकार तो सरकार है
पर क्या तुम
अपने आस-पास के
माहौल को बदल रहे हो ?

क्या कहा नहीं!
पर क्यों?
भाई हमें स्कूल जाना है ,
हमें दफ्तर जाना है ,
हमें घर के काम से छुट्टी नहीं
क्या बदलेगी ये दुनिया,
बदलने को हम ही मिले?

हाँ भाई दुनिया बदलने को
सिर्फ आप ही नहीं बने ?
फिर क्यों बैठे उस चौपाल पे
ये राग सुना रहे हो ?
नहीं बदलेगी ये दुनिया
सब को बाता  रहे हो !

दुनिया बदलने का काम,ये नहीं कि
पहले हम नेता बने ,फिर सोचे कि दुनिया बदलनी है .
बल्कि ये सोचे कि
पहले दुनिया बदले,फिर नेता हम बने .

बदलाब हर छोटी- छोटी चीजों से आता है,
अगर तुम स्कूल जा रहे हो
तो आपने सच्चे छात्र होने का परिचय दो,
दफ्तर में जा घूसखोरी से तौबा करो ,
घर में प्रेम बना
एक अच्छे समाज का निर्माण करो,
खुद में संतुष्ट रहो और समाज को
खुशहाली का पैगाम दो.

इस तरह हर व्यक्ति की
अपने काम के प्रति आस्था ही
दुनिया बदले सकती है
ना कोई सरकार और ना कोई फोर्स हमें बचा सकती है.

इसलिये मैं  कहती हूँ
ये दुनिया बदलेगी,बदल के देखो
ये हँसेगी,हँसा के देखो
पर पहले उस चौपाल से ,
कर्म के मैदान में उतर के तो देखो.

  

शनिवार, 8 मई 2010



आए दिन हम एक दूसरे से आगे निकलने कि होर में न जाने कितने पीछे चले जाते है.क्योंकि इस अंधी दौर में हम कितना झूठ बोलते है उसकी कोई गिनती नहीं है? कितने लोगों को हम धोखा देते है उसका कोई बहि-खाता नहीं होता .इस तरह हम झूठ बोल कर ,फरेब कर आगे तो निकल जाते है पर खुश नहीं हो पाते. इन सब से दुखी हो कर हम कही अकेले में बैठ कर सोचते है ..............!
उठा है तूफान
उठा है तूफान मेरे मन में ,कही डूब  जाऊ उन मद-मस्त ,
इच्छाओं की ऊँची-ऊँची लहरों की लपेट में 

मन के सिंहाशन पर बैठा,
वो इच्छा बाबा,
कहे कर जो कहू मैं तुझसे
छीन रोटी ?
कर तू नफ़रत !
आगे निकलने की चाह में 

मान-सम्मान ने रोका हमें 
दुनियाँ में मिलने से
रूपये-पैसे ने बांधा,आलीशान बंगलो की दीवारों से 

इस अंधी दौर में
प्यार भी छुटा,अपने भी रूठे
और ना जाने क्या -क्या टुटा
इस झूठी इच्छा की आग में.

पर कही किसी कोने में
आश जगी है ,
सब बदलने को एक प्यास जगी है ,
सो उठा है, तूफान मन मेरे मन में ,
डूब जाऊ ,उन मद-मस्त कामनाओं की लहरों में .

गुरुवार, 6 मई 2010



प्रभु की रची इस माया जाल में फसा हुआ मानव अपने लिए नित-नये सपने बुन रहा होता है पर वो हमेशा इस दुविधा में रहता कि आखिर वो क्या करे कि उसके सपने सच हो जाये.इसी माया के प्रकोपवस हर साल कई नौजवान छोटे इलाके से निकल, बरे शहरों कि तरफ रुक करते है पर उस जगह से अंजान होने के कारण उन्हें समझ नहीं आता कि वो आखिर शुरुआत कहा से करे.कुछ इसी तरह कि दुविधा में फसे एक युवक के उपर ये कविता लिखी गयी है जो खुद नहीं जनता कि उसे किस तरह अपनी मंजिल तक पहुँचना है? वो तो सिर्फ इतना ही जानता कि चाहे कुछ भी हो जाये उसे अपने सपनो को साकार करना है.................!

जानते नहीं!
आये है इस अंजान जगह जाने कितने सपने लेकर?
कभी पूरे होगे की नहीं,
जानते नहीं!
पर जानते तो सिर्फ इतना है कि
हमें कुछ करना है,कुछ कर दिखाना है
पर कैसे,
जानते नहीं ?

सोमवार, 3 मई 2010



समय नहीं है

समय नहीं है, समय नहीं है,
यारो मेरे पास समय नहीं है
दिन में बैठने को,रात में सोने को ,
समय नहीं है ?
क्या करूँ भईया, मेरे पास समय नहीं है,

सुबह अलार्म की घंटी बजते ही,
आधे सोये आधे- जागे,
दफ़्तर को किसी तरह भागते
दिनभर दफ़्तर कि फाईलो में सर खपाते,
शाम को किसी तरह थके-हारे घर को लौटते

घर लौट,सिर्फ हम इतना ही पाते,
बीवी ने माँ से मुहँ फुलाया,
बच्चो ने लॉलीपॉप ना मिलने से मुहँ लटकाया,

इन सारे को सुलझाते-सुलझाते,
आधी रात हम गवाते,
बाकी बची रात में,
कल क्या मुनाफा कमाना है,
ये सोचते-सोचते शायद हम सो जाते ?

फिर वही अलार्म की घंटी बजती,
और फिर उसी रूटीन को हम पाते,
इन सब के बीच में,
सिर्फ हम इतना ही कहा पाते,
यारो मेरे पास समय नहीं है?

रविवार, 2 मई 2010



मज़बूरी

ये हमारी मज़बूरी ही तो है
कि घर आये मेहमान को
भगवान कहना ही है .
"अतिथि देवो भाव:" का स्वर
मन को मजबूर कर लाना ही है .
है ये और कष्टकर जब
उस आये मेहमान से हमें
कोई कामधेनु न मिले .
उल्टे उस देव कि सेवा में
हमरी धन रानी चलती हुई दिखे .

और अगर ये आग-लगाऊ दुनियावाले
गलती से पूछ दे
भईया!आप तो हो देवता
वरना कौन इन महान
देवो को देवो भाव: की संज्ञा दे
तो वो बंदा भी पुल्ल्कित हो
स्वर अलापेगा --
"हाँ,भाई !मानव एक समाजिक प्राणी है
ये नाते -रिश्तेदार उन्ही के हिस्से है
उन्हें ढ़ोना
" हमारी मज़बूरी ही तो है"