बुधवार, 10 अगस्त 2011


तलाश

एक बार फिर की है अपने मन की |
दुनिया के रचे-रचाएं धुन को छोड़ ,
एक बार फिर गा रही हूँ अपने दिल की |

जो मिल गया, उसे छोड़
एक बार फिर चल पड़ी हूँ ,
उस नई राह की तलाश में.
वो मिलेगा या नहीं,
यह कौन है जनता ?
पर परवाह है किसे इसकी !

सो एक बार फिर चल पड़ी हूँ ,
बिना सोचे-बिना समझे कि
जाना कहाँ है ?
बस चल पड़ी हूँ ,
कदमों से लांघने दुनिया के उस पार |


रविवार, 7 अगस्त 2011

नई सुबह

एक अलसाई नींद से जागी तो
एक सुनहरी सुबह को देखा,
बादलों में आधा छुपा आधा निकला
वो पहला सूरज देखा |
पेड़ की डालियों और ऊची मंजिलों की ओट से निकलते
उन उनमुक्त पंछियों के झुंड को एक साथ उड़ते देखा |
हर रोज चिड़ियों को दाने देता, उस नेकदिल इंसान को देखा
कसरत करते उन कर्मठ लोगों को देखा, 
दफ्तर जाने के लिए तैयार होते,
लोगों के नित-दिनचर्या को देखा |
और इन सब के बीच
देखा अपने आपको,
इस नई होती सुबह में,
 
नई उर्जा- नए आत्मविश्वास के साथ,
एक नई राह पर
बढ़ते देखा |

शनिवार, 18 जून 2011

ज़िन्दगी कभी ख़त्म नहीं होती

ज़िन्दगी  कभी ख़त्म नहीं होती,
एक राह के खो जाने पर, दूसरी बंद नहीं होती |
 एक चिराग के बुझ जाने पर, रोशनी कम नहीं होती |

लोगों की भेड़ चाल देख, खुद ही भेड़ बन गए |
चाहते हो क्या जिन्दगी से,
ये पूछे बिना ही चल दिए |

हार के एक बार, फिर बार -बार ,
विपरित लहरों से कश्ती कभी पार नहीं होती |
किनारे बैठे रोने से कभी नाव खुद नहीं चल देती |

फूल हो आम का तो गुलाब कैसे बनोगे ?
गलती है तुम्हारी जो अपनी मिठास को छोड़,
सामने पड़े  गुलाब की खुशबू के से बनने को चल दिए| 
ना पहचान खुद को आप-ही -ग़म के सागर की ओर चल दिए |

पर जिन्दगी कभी ख़त्म नहीं होती
क्योंकि कोशिशे कभी बंद नहीं होती,
बस पहचान अपने आपको !
फिर चिराग तो क्या ,
सूरज की रोशनी भी कम होती |

रविवार, 30 जनवरी 2011

मैं चाहती हूँ

हाथों में सपनों का कटोरा लिए,
उस आसमान की ओर ताकती हूँ |
ख्वाबों के चादर पर चढ़,
देख फिर कैसे मैं नाचती हूँ |
 
बादलों पे बने उस सिंहासन पर,
 बैठना मैं चाहती हूँ|
समुद्र की गहराई से,
उस अंनंत ऊँचाई तक
यू ही विचरना चाहती हूँ|
 
जिम्मेदारियों से परे,
दुनिया के लवों-लक्ष से कोसो  दूर ,
मैं निरुद्देश्य,
यू ही भटकना चाहती हूँ |

मैं ये चाहती हूँ  ,मैं  वो चाहती हूँ ,
न जाने मैं क्या- क्या चाहती हूँ
बस उन सपनों को पूरा होते देखना 
मैं चाहती हूँ |

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

क्षण

क्या खूब कहा  किसी शायर  ने
 क्यों कर  मानव किसी से नफ़रत
रोया तू  हर क्षण प्रति क्षण  में
आया था तू  नंगा, जायेगा दो ग़ज में |

धन-वैभव दोस्त सभी
क्षण भर के ये साथी है|
नहीं है तेरा कुछ भी
जो रो रहा तू इनके जाने में |

जिस दिन ये आँखों की पुतलियाँ बंद होगी,
उस दिन ना दुश्मन की तलवार दिखेगी,
और ना चाहने वालों की कतार ही मिलेगी,
बस सब और अँधेरे होगा |

फिर क्यों कर  मानव किसी से नफ़रत
तू  रो रहा है
हर क्षण-प्रति क्षण में 
आया था तू  नंगा, जायेगा दो ग़ज में |