शनिवार, 18 सितंबर 2010

आज का समय स्वःकेन्द्रित होता जा रहा है. आज सभी अपनी ही दुनिया में जीते है,कोई किसी की मदद्त नहीं करना चाहता.ऐसे में अगर कोई सामने मर भी रहा हो तो भी लोग उसकी मदद्त नहीं करना चाहेगें.इसके पीछे बहुत हद तक हमारी कानून व्यवस्था भी जिम्मेदार है.आईये देखते है कैसे?

सच क्या है?

सच क्या है?
ये तो सिर्फ में जानती हूँ
या मेरा ख़ुदा.!!

रोड के किनारे गिरा वो चाकू
और कुछ दूर पे ,
मिला वो खूनी ढाँचा.

गये तो मदद्त को,
 पर ये क्या ?
कानून ने हमें ही धरदबोचा
और कहाँ ............
"इसका कोई प्रमाण नहीं कि
तुम जो बोल रहें हो
वो कानून की किताब में सच हो!
कौन मानेगा कि तुमने खून नहीं किया,
कि तुम वहाँ सिर्फ थे,जहाँ उसका खून हुआ.
कि तुमने गलती से उस चाकू को छुआ
जिससे उसकी मौत हुई"

क्योंकि तुम्हारे ख़िलाफ सारे सबूत है इसलिये
 तुम खूनी हो, खूनी हो,खूनी हो!!!

पर सच क्या है,
ये तो सिर्फ मैं जानती  हूँ
या मेरा ख़ुदा .



 





 

2 टिप्‍पणियां:

  1. aur maine socha tha ki sach kyaa hai yah koi nahin jaantaa.....galti ho gayi....kavita acchhi hai magar yah aur thodi acchhi honi chahiye thi....

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  2. वाह!
    आप कविता संसार में बहुत दूर तक जाने वाली हैं! बेहद उम्दा रचना.
    शुभकामनाएं.

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