रविवार, 7 अगस्त 2011

नई सुबह

एक अलसाई नींद से जागी तो
एक सुनहरी सुबह को देखा,
बादलों में आधा छुपा आधा निकला
वो पहला सूरज देखा |
पेड़ की डालियों और ऊची मंजिलों की ओट से निकलते
उन उनमुक्त पंछियों के झुंड को एक साथ उड़ते देखा |
हर रोज चिड़ियों को दाने देता, उस नेकदिल इंसान को देखा
कसरत करते उन कर्मठ लोगों को देखा, 
दफ्तर जाने के लिए तैयार होते,
लोगों के नित-दिनचर्या को देखा |
और इन सब के बीच
देखा अपने आपको,
इस नई होती सुबह में,
 
नई उर्जा- नए आत्मविश्वास के साथ,
एक नई राह पर
बढ़ते देखा |

4 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी8/08/2011 09:10:00 am

    सृष्टि जी,
    बहुत दिनों बाद आपकी रचना पढने को मिली.
    सुबह की गुनगुनी धूप सी सुहावनी कविता है.
    आशा है आगे भी लिखती रहोगी.

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  2. और इन सब के बीच
    देखा अपने आपको,
    इस नई होती सुबह में,
    नई उर्जा- नए आत्मविश्वास के साथ,
    एक नई राह पर बढ़ते देखा |

    Sunder.... Yahi Sakaratmak soch bani rahe..... Shubhkamnayen

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  3. सृष्टि जी,
    बहुत खूबसूरत अंदाज़ में पेश की गई है पोस्ट.....

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