बुधवार, 10 अगस्त 2011


तलाश

एक बार फिर की है अपने मन की |
दुनिया के रचे-रचाएं धुन को छोड़ ,
एक बार फिर गा रही हूँ अपने दिल की |

जो मिल गया, उसे छोड़
एक बार फिर चल पड़ी हूँ ,
उस नई राह की तलाश में.
वो मिलेगा या नहीं,
यह कौन है जनता ?
पर परवाह है किसे इसकी !

सो एक बार फिर चल पड़ी हूँ ,
बिना सोचे-बिना समझे कि
जाना कहाँ है ?
बस चल पड़ी हूँ ,
कदमों से लांघने दुनिया के उस पार |


4 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी8/10/2011 07:28:00 pm

    अब मन करता है तोड़ कर तर्कों का जंजाल ,
    निकल पडूं कुछ दिल से ठान,
    हर बंधन को तोड़ कर.
    उड़ चलूँ अम्बर के पार.

    सच कहा सृष्टि जी, कभी कभी यूँ ही बस बिना सोचे समझे मन में छुपी प्यारी सी दुनिया में जीने का मन करता है. उस वक़्त मन किसी तर्क-वितर्क या सही गलत के बारे में नहीं सोचना चाहता.

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  2. बेनामी8/30/2011 02:16:00 am

    जो मिल गया, उसे छोड़
    एक बार फिर चल पड़ी हूँ ,
    उस नई राह की तलाश में.
    वो मिलेगा या नहीं,
    यह कौन है जनता ?
    पर परवाह है किसे इसकी !

    बहुत खूब लिखा है आपने, आपकी इन पंक्तियों को पढ़कर अनायास ही मन में कुछ शब्द घूमने लगे हैं। ....

    दुश्मनों हाथ उठाओ कि मैं जीयूँ बरसों, 
    दोस्तो ने मेरे मरने की दुआ माँगी है।।

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  3. उम्दा सोच
    भावमय करते शब्‍दों के साथ गजब का लेखन ...आभार ।

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  4. nice yaar..... bahut aacha laga jaan ke k meri ek dost itni acchi poem v likhti hai...
    bahut accchi hai ye.. i loved it..
    ab dekh yaar mujhe shayari nai aati .. bt frm d bottam of my heart . it's really awesome.....

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