रविवार, 2 मई 2010



मज़बूरी

ये हमारी मज़बूरी ही तो है
कि घर आये मेहमान को
भगवान कहना ही है .
"अतिथि देवो भाव:" का स्वर
मन को मजबूर कर लाना ही है .
है ये और कष्टकर जब
उस आये मेहमान से हमें
कोई कामधेनु न मिले .
उल्टे उस देव कि सेवा में
हमरी धन रानी चलती हुई दिखे .

और अगर ये आग-लगाऊ दुनियावाले
गलती से पूछ दे
भईया!आप तो हो देवता
वरना कौन इन महान
देवो को देवो भाव: की संज्ञा दे
तो वो बंदा भी पुल्ल्कित हो
स्वर अलापेगा --
"हाँ,भाई !मानव एक समाजिक प्राणी है
ये नाते -रिश्तेदार उन्ही के हिस्से है
उन्हें ढ़ोना
" हमारी मज़बूरी ही तो है"

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें